"उजड़े गाव"

" उजड़े गाव " शहराँ की इस दौड़ ने , ना जाने कितने गाम उजाड़े हैं सुधारण खातिर अपना उल्लू , इन्हाने सारे काम बिगाड़े हैं ला के आग महारे घराण मे , ये खुद चैन ते सोवे हैं अपनी सुख - सुविधा खातिर , ये गामा के चैन ने खोवे हैं बहका के हमने , महरी जिंदगी मे बीज दुखा के बोवे हैं रे ये के जानेह , उज्ड़ेह पड़े इन घराँ मैं , भूखे - प्यासे कितने बालक रोवे हैं मुर्दें के ये कफ़न बेच दें , इतने तगड़े ये खिलाड़े हैं शहराँ की इस दौड़ ने , ना जाने कितने गाम उजाड़े हैं जो धरती है जान ते प्यारी , वो माँ महरी ये खोसे हैं छल - कपटी समाज के निर्माता , आज म्हारे उपर धोसे हैं खुद खा जावे लाख - करोड़ , अर् म्हारी subsides ने कोसे हैं शर्म आनी चहिय तमने , तहारा ख़ाके ताहारे उपर भोसे हैं भूल गये उपकार हमारे , सिंघो तहारे उपर गिदर दहाड़ै हैं शहराँ की इस दौड़ ने , ना जाने कितने गाम उजाड़े हैं सुधारण खातिर अपना उल्लू , इन्हाने सारे क...